એકલવ્ય: આવૃત્તિઓ વચ્ચેનો તફાવત

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૧૬:૪૬, ૧૪ ઓગસ્ટ ૨૦૦૮ સુધીનાં પુનરાવર્તન

એકલવ્ય महाभारत का एक पात्र है। वह हिरण्य धनु नामक निषाद का पुत्र था। એકલવ્ય की गुरुभक्ति महान थी। उसने गुरु के माँगने पर गुरुदक्षिणा के रूप में अपने दाहिने हाँथ का अँगूठा अपने गुरु को समर्पित कर दिया था।

એકલવ્યના ગુરુ

એકલવ્ય धनुर्विद्या सीखने के उद्देश्य से द्रोणाचार्य के आश्रम में आया किन्तु निम्न वर्ण का होने के कारण द्रोणाचार्य ने उसे अपना शिष्य बनाना स्वीकार नहीं किया। निराश हो कर એકલવ્ય वन में चला गया। उसने द्रोणाचार्य की एक मूर्ति बनाई और उस मूर्ति को गुरु मान कर धनुर्विद्या का अभ्यास करने लगा। एकाग्रचित्त से साधना करते हुये अल्पकाल में ही वह धनु्र्विद्या में अत्यन्त निपुण हो गया।

એકલવ્યનુ કૌશલ

एक दिन पाण्डव तथा कौरव राजकुमार गुरु द्रोण के साथ आखेट के लिये उसी वन में गये जहाँ पर એકલવ્ય आश्रम बना कर धनुर्विद्या का अभ्यास कर रहा था। राजकुमारों का कुत्ता भटक कर એકલવ્ય के आश्रम में जा पहुँचा। એકલવ્ય को देख कर वह भौंकने लगा। इससे क्रोधित हो कर એકલવ્ય ने उस कुत्ते अपना बाण चला-चला कर उसके मुँह को बाणों से से भर दिया। એકલવ્ય ने इस कौशल से बाण चलाये थे कि कुत्ते को किसी प्रकार की चोट नहीं लगी किन्तु बाणों से बिंध जाने के कारण उसका भौंकना बन्द हो गया।

દ્રોણનું આશ્ચર્ય

कुत्ते के लौटने पर जब अर्जुन ने धनुर्विद्या के उस कौशल को देखा तो वे द्रोणाचार्य से बोले, "हे गुरुदेव! इस कुत्ते के मुँह में जिस कौशल से बाण चलाये गये हैं उससे तो प्रतीत होता है कि यहाँ पर कोई मुझसे भी बड़ा धनुर्धर रहता है।" अपने सभी शिष्यों को ले कर द्रोणाचार्य એકલવ્ય के पास पहुँचे और पूछे, "हे वत्स! क्या ये बाण तुम्हीं ने चलाये है?" એકલવ્ય के स्वीकार करने पर उन्होंने पुनः प्रश्न किया, "तुम्हें धनुर्विद्या की शिक्षा देने वाले कौन हैं?" એકલવ્ય ने उत्तर दिया, "गुरुदेव! मैंने तो आपको ही गुरु स्वीकार कर के धनुर्विद्या सीखी है।" उसका उत्तर सुनकर द्रोणाचार्य बोले, "किन्तु वत्स! मैंने तो तुम्हें कभी शिक्षा नहीं दी।" इस पर એકલવ્ય ने हाथ जोड़ कर कहा, "गुरुदेव! मैंने आप ही को अपना गुरु मान कर आपकी मूर्ति के समक्ष धनुर्विद्या का अभ्यास किया है। अतः आप ही मेरे पूज्यनीय गुरुदेव हैं।" इतना कह कर उसने द्रोणाचार्य की उनकी मूर्ति के समक्ष ले जा कर खड़ा कर दिया।


એકલવ્યની ગુરુ પ્રતિ નિષ્ઠા

द्रोणाचार्य नहीं चाहते थे कि कोई अर्जुन से बड़ा धनुर्धारी बन पाये। वे એકલવ્ય से बोले, "यदि मैं तुम्हारा गुरु हूँ तो तुम्हें मुझको गुरुदक्षिणा देनी होगी।" એકલવ્ય बोला, "गुरुदेव! गुरुदक्षिणा के रूप में आप जो भी माँगेंगे मैं देने के लिये तैयार हूँ।" इस पर द्रोणाचार्य ने એકલવ્ય से गुरुदक्षिणा के रूप में उसके दाहिने हाथ के अँगूठे की माँग की। એકલવ્ય ने सहर्ष अपना अँगूठा दे दिया।

એકલવ્યની રીત

अंगूठा कट जाने के बाद એકલવ્ય ने तर्जनी और मध्यमा अंगुली का प्रयोग कर तीर चलाने लगा। यहीं से तीरंदाजी करने के आधुनिक तरीके का जन्म हुआ। निःसन्देह यह बेहतर तरीका है और आजकल तीरंदाजी इसी तरह से होती है। वर्तमान काल में कोई भी व्यक्ति उस तरह से तीरंदाजी नहीं करता जैसा कि अर्जुन करता था। वास्तव में એકલવ્ય महान धनुर्धर था।